Thursday, June 04, 2020

योगेश, केप कॉडची सकाळ आणि कहीं दूर जब ...Edward Hopper, Yogesh and Watching the Sun

 मे  २९ २०२० च्या रात्री मी  ट्विटर वरती, झोप येत नसताना, योगेश गौर वारल्याचे पहिले आणि लक्षातच येईना - योगेश गौर म्हणजे कोण... मग खाली 'आनंद' चा उल्लेख वाचल्यावर वाईट वाटले...

सलील चौधरी आणि योगेश यांनी 'ती दोन गाणी'  (मुकेश आणि मन्ना डे) माझ्या जीवनात तरी  अजरामर केली.....

किती लहान होते ते त्यावेळी... १९७० साली अवघे २७ वर्षांचे .... दहा /आकरा वर्षाच्या मला सुद्धा ते अंतर्मुख करून गेले ....

मिरजेला देवल टॉकीज ला तो सिनेमा १९७१ साली बघितला आणि बाबू मोशाय पेक्षा मला ती गाणी जास्त आवडली होती .... बाहेर आलो ते ती गाणी गुणगुणत ... मूड: चेकोव्ह म्हणतो तसा दुःखी पण आनंदी!

ती दोन गाणी नसती तर आनंद हा लक्षणीय सिनेमा झाला नसता....

"कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए

मेरे ख़यालों के आँगन में
कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए

कभी यूँहीं, जब हुईं, बोझल साँसें
भर आई बैठे बैठे, जब यूँ ही आँखें
कभी यूँहीं, जब हुईं, बोझल साँसें
भर आई बैठे बैठे, जब यूँ ही आँखें
तभी मचल के, प्यार से चल के
छुए कोई मुझे पर नज़र न आए, नज़र न आए

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए

कहीं तो ये, दिल कभी, मिल नहीं पाते
कहीं से निकल आए, जनमों के नाते
कहीं तो ये, दिल कभी, मिल नहीं पाते
कहीं से निकल आए, जनमों के नाते
घनी थी उलझन, बैरी अपना मन
अपना ही होके सहे दर्द पराये, दर्द पराये

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए
(...)
दिल जाने, मेरे सारे, भेद ये गहरे
खो गए कैसे मेरे, सपने सुनहरे
दिल जाने, मेरे सारे, भेद ये गहरे
खो गए कैसे मेरे, सपने सुनहरे
ये मेरे सपने, यही तो हैं अपने
मुझसे जुदा न होंगे इनके ये साये, इनके ये साये

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए
मेरे ख़यालों के आँगन में
कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए
कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए"


“Cape Cod Morning”, 1950, by Edward Hopper   


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